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एक बार जब ख्यात शिक्षाविद् और विचारक जे. कृष्णमूर्ति से पूछा गया कि शिक्षा क्या है? तो उन्होने जवाब दिया कि शिक्षा वो है जो मनुष्य को प्रज्ञावान बनाए। लगभग यही बात देश की शिक्षा नीति को एक नई दिशा देने वाले शिक्षाविद् पदमभूषण अनिल बोर्दिया भी कहा करते थे, उनका कहना था कि शिक्षा वो है जिससे चित्त हो भयमुक्त जिससे और ऊंचा रह सके सिर… दरअसल ये पंक्तियां गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी कविता के हिन्दी अनुवाद से ली गई है, जो हमारे जीवन में शिक्षा के सही मायनों और संदर्भो को व्यक्त करती है।

अब सवाल ये है कि इंसान को भयमुक्त अथवा प्रज्ञावान होने से तात्पर्य क्या है और हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली उसमें कहां तक कारगर है। प्रज्ञावान होने का तातप्र्य है कि हमारी आत्मा अच्छे-बुरे, जीत-हार के व्यर्थ डर से मुक्त हो पाए, जो हर परिस्थिति में सिर ऊठा कर रह सके। जो उसे इंसान होने का मतलब सीखा पाए… जरा सोचिए कि अगर कोई बच्चा केवल गिरने के डर से अपना पांव ना उठाए तो क्या वो कभी चलना सीख पाएगा। हमारे इसी डर ने हमसे कुछ नया सीख पाने का सामथ्र्य छीन लिया है। इसका पूरा पूरा दोष हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली को है। मैकाले द्वारा प्रतिपादित इस पद्धति में कुछ नया करने या नवाचारों के प्रति कोई आग्रह है ही नहीं, इस प्रणाली का पूरा जोर केवल हुकम की तामील करने वाले कर्मचारी तैयार करना है जो केवल बताये गए काम को एक तयशुदा करने भर के लिए सक्षम हो।

अब जब किसी शिक्षा पद्धति का लक्ष्य ही अनुसरण करने वाले व्यक्ति तैयार करना होगा तो वो कैसे भयमुक्त इंसान तैयार कर पाएगी। आप किसी भी स्तर के कक्षाकक्ष को देख लीजिए, शिक्षकोंं द्वारा प्रश्र पूछने वाले छात्रों को किस तरह हतोत्साहित किया जाता है। कक्षा में किसी छात्र के नम्बर केवल इस आधार पर काट लिए जाते है क्योंकि उसने शिक्षक के बताए तरीके ये सवाल हल नहीं किया। जो शिक्षा बच्चे के मूल्यांकन में कोई नवाचार सहन नहीं कर सकती वो उसे जीवन में नवाचार करने के लिए तैयार कर पाएगी, इस तथ्य पर भरोसा करना जरा मुश्किल ही है।

हम हमारी शिक्षा को देखे, वो जो आपने और हमने पाई है, उसका अपने रोजमर्रा के जीवन में कितनी काम का पाते है। माफ किजिएगा पर मुझे कभी जरूरत नहीं पडा की जीवन में एक्स=मान लो का प्रयोग कर पाया हूं, या अंग्रेजी में जबरन रटाए गए लॉयन एण्ड माउस की कहानी मुझे कहीं सुनानी पडी हो। ये केवल चन्द नमूने है हमारी शिक्षा का जीवन में प्रयोग बताने के लिए।

सरकार ने शिक्षा के अधिकार कानून को संविधान के बेहतर जीवन जीने की जरूरत वाले अनुच्छेद में जोडा गया है, ये बताते हुए कि शिक्षा किसी इंसान के सम्मानपूर्वक जीवन जीने की आश्वयक शर्त है, परन्तु ये शर्त कहां तक इंसान के जीवन जीने के काम आती है, ये बता पाना किसी सरकार के बस का रोग नहीं।

हम हमारे बच्चों को जबरन ये कहते हुए स्कूलों की ओर धकेलते है कि पढ-लिख लो कुछ बन जाओगे, मगर जब ये ही बच्चे अपने जीवन के बेशकीमती साल इन स्कूलों की दिवारों से सर पटकने के बाद खुद को बेरोगजगारों की भीड में खडा पाते है तब हमारे पास कोई जबाव नहीं होता देने के लिए कि इनकी पढाई क्यों इनके कोई काम नहीं आई। हमने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की आखिर क्या वजह है कि अपना सबकुछ दांव पर लगाकर डिग्रीयां हासिल करने वाले इन युवाओं के जीवन में ऐसा कौनसा अंधेरा छा गया है कि चार महिने ढंग का प्लेसमेन्ट ना मिले तो वो मौत को गले लगा लेता है, या आठवी में पास ना होने पर कोई बच्ची आत्महत्या कर लेती है।

जीवन की चुनौतियों से लडने की ताकत इन्हे कौनसी शिक्षा, कौनसी किताब देगी….